सामाजिक >> भंवर के बीच भंवर के बीचविमल मित्र
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एक श्रेष्ठ उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह मैं किसकी कहानी कहने बैठा हूं ?
अटल दा की ? इन्दुलेखा की ? या फिर कुन्ती देवी की ? गलती सभी से होती है, पर अपनी गलती की इतनी कीमत अटल दा कि तरह क्या लोग चुका सकते हैं ? अटल दा के पास क्या-‘कुछ नहीं था ? विद्या थी, स्वास्थ्य था। आम आदमियों के पास जो चीजें नहीं होतीं-वे सभी थीं।
फिर भी किस भूल की वजह से उनमें ये सारे गुण रहते हुए ही उनके जीवन की इतनी करुण परिणति हुई ? और इन्दुलेखा देवी ?
पत्नी बहुतों की रहती है, बहुतों की नहीं। पर अटल दा की पत्नी जैसी कितनों को मिलती है ? कोई पत्नी पति की प्रतिभा का सम्मान करती है और कोई पति की सुखी गृहस्थी में आग का कारण बन जाती है। कोई तो पति के दोष और त्रुटियों को क्षमा की आड़ में छिपा लेती है और कोई अवहेलना से पति को प्रताड़ित करती रहती है। संसार में पति-पत्नी के रिश्ते को लेकर डेर सारे जटिल उपन्यास लिखे गए हैं, लेकिन ऐसी कहानी कितने उपन्यासों में मिलेगी ? और फिर इन्दुलेखा देवी की तरह की पत्नी कितने पतियों को प्राप्त ही हैं और ऐसी पत्नी की इतनी अवहेलना कितने पति कर ही सकते हैं ?
इसलिए तो कह रहा था कि मैं ये आखिर किसकी कहानी बताना चाहता हूं- अटल दा की इन्दुलेखा की, या फिर कुन्तीदेवी की ?
याद आता है-घटना शादी के दिन ही घटी थी। मैंने जिन दिनों लिखना शुरू किया था, मेरी उम्र ढल चुकी थी। लेकिन उसके पहले ? उसके पहले के जीवन के बारे में सोचता हूं तो कई बार एक अजीब-सी थकान महसूस होती है। और अब तो अचानक किसी से भेंट होने पर मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्या नाम है ? क्या परिचय है ? कहां पहले देखा था, बड़ा परिचित-सा चेहरा है-बस और कुछ याद नहीं आता। पर इतना जरूर याद है कि वह घटना शादी की रात ही घटी थी। मैंने पूछा था- आप कभी बदामतल्ले मोहल्ले में थीं क्या ? प्रश्न सुनकर महिला थोड़ी संकुचित हो उठी थी।
एक के बाद दसूरी आ रही थीं और उनमें से कई मेरे प्रश्नों का उत्तर अच्छी तरह देकर चली भी जा रही थीं। बालिका-विद्यालय में शिक्षिका की नियुक्ति के लिए इन्टरव्यू चल ही रहा था। सभी बी० ए० पास थीं। बहुत-सारी दरख्वास्तें थीं। दूसरे स्कूलों में पढ़ाने का अनुभव भी उन्हें था। इण्टव्यू लेकर निर्वाचन का भार मुझी पर था। स्थायी सेक्रेटरी भुवन बाबू छुट्टी पर गए हुए थे। जाते समय मुझे कह गए थे-विवाहित महिला को प्रेफरेंस दीजिएगा, क्योंकि अविवाहित लड़कियां काम-धाम सीखकर अन्त में शादी कर नौकरी छोड़ देती हैं। इसलिए-
स्कूल-कमेटी की भी यही राय थी। भुवन बाबू के साथ मेरी दोस्ती बड़ी पुरानी थी। इस मुहल्ले में नया मकान बनाने के बाद मैं यहीं चला आया था। कमेटी के सदस्य मुझे दरख्वास्त वगैरह पकड़ाकर बोले थे- पन्द्रह उम्मीदवार हैं। उनमें से आप किसी एक को चुन लीजिएगा।
स्कूल भुवन बाबू का ही था। इस स्कूल के पीछे उन्होंने काफी पैसा खर्च किया था। खैर ! निर्दिष्ट तारीख को मैं इण्टरव्यू ले रहा था। भुवन बाबू की स्वर्गीया पत्नी उर्मिला देवी के नाम पर स्कूल का नाम रखा गया था। माहवार पचहत्तर रुपया बेसिक और तीन रुपया सलाना इन्क्रिमेंट।
दस साल में बड़कर तनख्वाह एक सौ पांच रुपये हो जाएगी। एक क्वार्टर फ्री था, आठ आने प्रतिदिन टिफिन के लिए दिए आते थे, दशहरे के समय पचास रुपये पूजा-गिफ्ट तौर पर दिए जाते थे। उर्मिला बालिका-विद्यालय में इसी तरह की कई सुविधाए थीं। यह भुवन बाबू की ही कृपा थी।
सरकार से ग्राण्ड मिले या नहीं, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। स्कूल के खर्च के लिए पैसे कम पड़ने पर वह अपनी जेब से भर देते। भुवन बाबू ने मुझसे कहा था-यह एक अजीब मुहल्ला है, साहब ! कोई किसी का भला देख नहीं सकता। आप यहां के लिए नये हैं न, धीरे-धीरे सब समझ जाइएगा।
कुमारी सुलता हाजरा, कुमारी सुपर्णा सेन, कुमारी अर्चना सेन गुप्ता....
-आपका नाम ?
-श्रीमती इन्दुलेखा देवी।
एकमात्र विवाहिता यहीं थी थोड़ा भारी गम्भीर चेहरा। देखने पर श्रद्धा जगती, डर भी लगता। उर्मिला बालिका-विद्यालय की बालिकाएं इस चेहरे को आदर देंगी, और फिर भुवन बाबू ने भी चलते समय विवाहित महिला का ही निर्वाचन करने के लिए कहा था।
मैंने पूछा-आपके बच्चे ?
इन्दुलेखा देवी बोली-मेरी कोई सन्तान नहीं।
-पति क्या करते हैं ?
-पति नहीं हैं।
मैंने चौंककर महिला की ओर गौर से देखा। क्या मैंने भूल की थी ? पर मांग में सिन्दूर था। माथे के बीचोंबीच मांग स्पष्ट थी। सिर पर थोड़ा आंचल भी था विवाहित जीवन के सारे लक्षण थे। मैं बेवकूफ की तरह क्षणभर अपलक उस महिला को देखता रहा, पर तुरन्त ही अपने को संभाल लिया। मेरे ऊपर सिर्फ उर्मिला बालिका-विद्यालय के लिए शिक्षिका के चुनाव का ही भार था। किसी की शादी के लिए लड़की देखने के लिए तो मैं यहां आया नहीं था। अधिक उत्सुकता जाहिर करना अनुचित था, और कुछ पूछूं, यह भी शायद मेरे लिए ठीक नहीं।
स्कूल से सम्बन्धित कुछ और बातें मुझे पूछनी थीं, पर सब गड़बड़ा गया। कुछ देर तक मैं अजीब पशोपेश में पड़ा रहा। ऐसी छोटी-सी बात भी इतनी बड़ी समस्या बन सकती थी, यह किसे मालूम था ! उपन्यास-कहानियां लिखकर कई कठिन समस्याओं का समाधान मैंने किया है। कल्पना में जटिल जीवन की कई ऐंठनों को खोला है, पर ऐसा कुछ होगा यह मैं नहीं जानता था। किवाड़ बन्द करके मैं टेबल-कुर्सी पर बैठकर, कलम चलाकर ख्याति भी मुझे कुछ कम नहीं मिली है। सभी को मालूम है, लोकचरित्र मैं खूब समझता हूं।
विशेषकर नारी-चरित्र। तो फिर मांग में सिन्दूर रहने पर भी पति न होने का भेद आखिर क्या था ? क्या पति ने अपनी पत्नी को त्याग दिया था ? मैंने आंखे नीचे करके कहा- आप बैठिए।
कहानी लिखने में कुछ सुविधाएं हैं। लिखते-लिखते कलम रोककर सोचा जा सकता है, गलत शब्दों को काट-पीटकर ठीक भी किया जा सकता है, बेठीक बातों को फिर से नय ढंग से लिखा जा सकता है, वक्त की कमी भी नहीं सताती। वह महिला अपने-आप ही बोलीं-मैंने अपने पति को छोड़ दिया है। कैसी अजीब बात है ! पत्नी भी कभी पति त्याग कर सकती है क्या ? मैं तो समझता था कि पति ही पत्नी को छोड़ देता है;
पर इन्दुलेखा देवी को देखकर मुझे लगा-मैंने इन्हें कहीं देखा जरूर है। क्या तो नाम था ? परिचय ?-कहां देखा था ? बड़ा परिचित-सा चेहरा-उन दिनों मुझे डायरी लिखने की आदत नहीं थी। मैंने पूछा-आप कभी बदामतल्ले में रहती थीं ? मेरी तरफ एक नजर डालकर इन्दुलेखा देवी ने कुछ कहना चाहा, पर संकोचवश बोल नहीं सकीं।
मैंने कहा-बचपन में मैं भी बदामतल्ले में ही रहा करता था। वह मेरा जन्मस्थान है।
इन्दुलेखा देवी बोलीं-तब तो उन लोगों को जरूर जानते होंगे ? मेरे पति का नाम....
उन्हें आगे और कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पल भर में मैं स्वर्ग और मर्त्य लोक परिभ्रमण कर आया। अटल दा, उनके पिताजी, उनकी माँ इन लोगों को तो मैं अभी भी नहीं भूला हूं। अटल दा की माँ उस दिन कितना रोई थीं। मुहल्ले के कई लोग उस दिन विवाह-मण्डप में उपस्थित थे। शंख बज रहा था। नौबत बज रही थी। बरातियों की बांहों में बेलमोतिया की फूलमालाएं लिपटी हुई थीं। लोग-बाग शरबत पी रहे थे सिगरेट पी रहे थे। पर एकाएक सारा जमघट ठण्डा पड़ गया था।
अटल दा की ? इन्दुलेखा की ? या फिर कुन्ती देवी की ? गलती सभी से होती है, पर अपनी गलती की इतनी कीमत अटल दा कि तरह क्या लोग चुका सकते हैं ? अटल दा के पास क्या-‘कुछ नहीं था ? विद्या थी, स्वास्थ्य था। आम आदमियों के पास जो चीजें नहीं होतीं-वे सभी थीं।
फिर भी किस भूल की वजह से उनमें ये सारे गुण रहते हुए ही उनके जीवन की इतनी करुण परिणति हुई ? और इन्दुलेखा देवी ?
पत्नी बहुतों की रहती है, बहुतों की नहीं। पर अटल दा की पत्नी जैसी कितनों को मिलती है ? कोई पत्नी पति की प्रतिभा का सम्मान करती है और कोई पति की सुखी गृहस्थी में आग का कारण बन जाती है। कोई तो पति के दोष और त्रुटियों को क्षमा की आड़ में छिपा लेती है और कोई अवहेलना से पति को प्रताड़ित करती रहती है। संसार में पति-पत्नी के रिश्ते को लेकर डेर सारे जटिल उपन्यास लिखे गए हैं, लेकिन ऐसी कहानी कितने उपन्यासों में मिलेगी ? और फिर इन्दुलेखा देवी की तरह की पत्नी कितने पतियों को प्राप्त ही हैं और ऐसी पत्नी की इतनी अवहेलना कितने पति कर ही सकते हैं ?
इसलिए तो कह रहा था कि मैं ये आखिर किसकी कहानी बताना चाहता हूं- अटल दा की इन्दुलेखा की, या फिर कुन्तीदेवी की ?
याद आता है-घटना शादी के दिन ही घटी थी। मैंने जिन दिनों लिखना शुरू किया था, मेरी उम्र ढल चुकी थी। लेकिन उसके पहले ? उसके पहले के जीवन के बारे में सोचता हूं तो कई बार एक अजीब-सी थकान महसूस होती है। और अब तो अचानक किसी से भेंट होने पर मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्या नाम है ? क्या परिचय है ? कहां पहले देखा था, बड़ा परिचित-सा चेहरा है-बस और कुछ याद नहीं आता। पर इतना जरूर याद है कि वह घटना शादी की रात ही घटी थी। मैंने पूछा था- आप कभी बदामतल्ले मोहल्ले में थीं क्या ? प्रश्न सुनकर महिला थोड़ी संकुचित हो उठी थी।
एक के बाद दसूरी आ रही थीं और उनमें से कई मेरे प्रश्नों का उत्तर अच्छी तरह देकर चली भी जा रही थीं। बालिका-विद्यालय में शिक्षिका की नियुक्ति के लिए इन्टरव्यू चल ही रहा था। सभी बी० ए० पास थीं। बहुत-सारी दरख्वास्तें थीं। दूसरे स्कूलों में पढ़ाने का अनुभव भी उन्हें था। इण्टव्यू लेकर निर्वाचन का भार मुझी पर था। स्थायी सेक्रेटरी भुवन बाबू छुट्टी पर गए हुए थे। जाते समय मुझे कह गए थे-विवाहित महिला को प्रेफरेंस दीजिएगा, क्योंकि अविवाहित लड़कियां काम-धाम सीखकर अन्त में शादी कर नौकरी छोड़ देती हैं। इसलिए-
स्कूल-कमेटी की भी यही राय थी। भुवन बाबू के साथ मेरी दोस्ती बड़ी पुरानी थी। इस मुहल्ले में नया मकान बनाने के बाद मैं यहीं चला आया था। कमेटी के सदस्य मुझे दरख्वास्त वगैरह पकड़ाकर बोले थे- पन्द्रह उम्मीदवार हैं। उनमें से आप किसी एक को चुन लीजिएगा।
स्कूल भुवन बाबू का ही था। इस स्कूल के पीछे उन्होंने काफी पैसा खर्च किया था। खैर ! निर्दिष्ट तारीख को मैं इण्टरव्यू ले रहा था। भुवन बाबू की स्वर्गीया पत्नी उर्मिला देवी के नाम पर स्कूल का नाम रखा गया था। माहवार पचहत्तर रुपया बेसिक और तीन रुपया सलाना इन्क्रिमेंट।
दस साल में बड़कर तनख्वाह एक सौ पांच रुपये हो जाएगी। एक क्वार्टर फ्री था, आठ आने प्रतिदिन टिफिन के लिए दिए आते थे, दशहरे के समय पचास रुपये पूजा-गिफ्ट तौर पर दिए जाते थे। उर्मिला बालिका-विद्यालय में इसी तरह की कई सुविधाए थीं। यह भुवन बाबू की ही कृपा थी।
सरकार से ग्राण्ड मिले या नहीं, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। स्कूल के खर्च के लिए पैसे कम पड़ने पर वह अपनी जेब से भर देते। भुवन बाबू ने मुझसे कहा था-यह एक अजीब मुहल्ला है, साहब ! कोई किसी का भला देख नहीं सकता। आप यहां के लिए नये हैं न, धीरे-धीरे सब समझ जाइएगा।
कुमारी सुलता हाजरा, कुमारी सुपर्णा सेन, कुमारी अर्चना सेन गुप्ता....
-आपका नाम ?
-श्रीमती इन्दुलेखा देवी।
एकमात्र विवाहिता यहीं थी थोड़ा भारी गम्भीर चेहरा। देखने पर श्रद्धा जगती, डर भी लगता। उर्मिला बालिका-विद्यालय की बालिकाएं इस चेहरे को आदर देंगी, और फिर भुवन बाबू ने भी चलते समय विवाहित महिला का ही निर्वाचन करने के लिए कहा था।
मैंने पूछा-आपके बच्चे ?
इन्दुलेखा देवी बोली-मेरी कोई सन्तान नहीं।
-पति क्या करते हैं ?
-पति नहीं हैं।
मैंने चौंककर महिला की ओर गौर से देखा। क्या मैंने भूल की थी ? पर मांग में सिन्दूर था। माथे के बीचोंबीच मांग स्पष्ट थी। सिर पर थोड़ा आंचल भी था विवाहित जीवन के सारे लक्षण थे। मैं बेवकूफ की तरह क्षणभर अपलक उस महिला को देखता रहा, पर तुरन्त ही अपने को संभाल लिया। मेरे ऊपर सिर्फ उर्मिला बालिका-विद्यालय के लिए शिक्षिका के चुनाव का ही भार था। किसी की शादी के लिए लड़की देखने के लिए तो मैं यहां आया नहीं था। अधिक उत्सुकता जाहिर करना अनुचित था, और कुछ पूछूं, यह भी शायद मेरे लिए ठीक नहीं।
स्कूल से सम्बन्धित कुछ और बातें मुझे पूछनी थीं, पर सब गड़बड़ा गया। कुछ देर तक मैं अजीब पशोपेश में पड़ा रहा। ऐसी छोटी-सी बात भी इतनी बड़ी समस्या बन सकती थी, यह किसे मालूम था ! उपन्यास-कहानियां लिखकर कई कठिन समस्याओं का समाधान मैंने किया है। कल्पना में जटिल जीवन की कई ऐंठनों को खोला है, पर ऐसा कुछ होगा यह मैं नहीं जानता था। किवाड़ बन्द करके मैं टेबल-कुर्सी पर बैठकर, कलम चलाकर ख्याति भी मुझे कुछ कम नहीं मिली है। सभी को मालूम है, लोकचरित्र मैं खूब समझता हूं।
विशेषकर नारी-चरित्र। तो फिर मांग में सिन्दूर रहने पर भी पति न होने का भेद आखिर क्या था ? क्या पति ने अपनी पत्नी को त्याग दिया था ? मैंने आंखे नीचे करके कहा- आप बैठिए।
कहानी लिखने में कुछ सुविधाएं हैं। लिखते-लिखते कलम रोककर सोचा जा सकता है, गलत शब्दों को काट-पीटकर ठीक भी किया जा सकता है, बेठीक बातों को फिर से नय ढंग से लिखा जा सकता है, वक्त की कमी भी नहीं सताती। वह महिला अपने-आप ही बोलीं-मैंने अपने पति को छोड़ दिया है। कैसी अजीब बात है ! पत्नी भी कभी पति त्याग कर सकती है क्या ? मैं तो समझता था कि पति ही पत्नी को छोड़ देता है;
पर इन्दुलेखा देवी को देखकर मुझे लगा-मैंने इन्हें कहीं देखा जरूर है। क्या तो नाम था ? परिचय ?-कहां देखा था ? बड़ा परिचित-सा चेहरा-उन दिनों मुझे डायरी लिखने की आदत नहीं थी। मैंने पूछा-आप कभी बदामतल्ले में रहती थीं ? मेरी तरफ एक नजर डालकर इन्दुलेखा देवी ने कुछ कहना चाहा, पर संकोचवश बोल नहीं सकीं।
मैंने कहा-बचपन में मैं भी बदामतल्ले में ही रहा करता था। वह मेरा जन्मस्थान है।
इन्दुलेखा देवी बोलीं-तब तो उन लोगों को जरूर जानते होंगे ? मेरे पति का नाम....
उन्हें आगे और कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पल भर में मैं स्वर्ग और मर्त्य लोक परिभ्रमण कर आया। अटल दा, उनके पिताजी, उनकी माँ इन लोगों को तो मैं अभी भी नहीं भूला हूं। अटल दा की माँ उस दिन कितना रोई थीं। मुहल्ले के कई लोग उस दिन विवाह-मण्डप में उपस्थित थे। शंख बज रहा था। नौबत बज रही थी। बरातियों की बांहों में बेलमोतिया की फूलमालाएं लिपटी हुई थीं। लोग-बाग शरबत पी रहे थे सिगरेट पी रहे थे। पर एकाएक सारा जमघट ठण्डा पड़ गया था।
2
भुवन बाबू छुट्टी से लौट आए।
बोले-क्यों साहब, निर्वाचन का क्या हुआ ?
मैंने कहा-अभी तक कोई निर्णय नहीं ले पाया हूं।
भुवन बाबू बोले-इसमें इतना सोचने-विचारने का है ही क्या ? जिसे भी हो, नियुक्त-पत्र डाल दीजिए। चेहरा देखकर ही चरित्र का भी अनुमान लगा बैठेंगे, इसलिए तो मैंने यह काम आपको सौंपा था।
मैंने कहा-माफ कीजिएगा, भुवन बाबू। मैं हार गया हूं, मेरा अहंकार टूट चुका है।
-क्यों ? भुवन बाबू अवाक होकर मेरी ओर घूमते रहे। क्यों यह हारने की बात कहां से उठ गई ? अहंकार टूटने का क्या कारण हो सकता है, मैं समझा नहीं ?
मैंने कहा-है, भुवन बाबू ! कारण है। आप लोग समझते हैं, साहित्यिक होने से ही आदमी को पहचानना आसान हो जाता है, पर यह बात बिल्कुल गलत है। हम लोग सिर्फ बना-बनाकर कहानियां लिख सकते हैं। कोशिश करने पर आप भी लिख सकते हैं। मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है। एक थी। बी०ए० पास, बच्चा वगैरह भी नहीं है-पर पति को छोड़ आई है-ऐसी टीचर आप रखेंगे ? कहिए !
पति को छोड़ दिया है ? भुवन बाबू को मन में भी दुविधा हुई। इतने वर्षों से वह स्कूल चला रहे थे। बुजुर्ग आदमी थे। जीवन को उन्होंने देखा –पहचाना था। अनेक जगह घूम आए थे। लोगों से ठगे भी गए थे। लेकिन आदमी अनुभवी थे। पर उन्हें भी संकोच में पड़ा देखकर मैंने कहा-आप स्वयं भी सोचिए और अपनी कमेटी के मेंम्बरों से भी सलाह-मशविरा कर लीजिए।
मुझे मालूम है कि कमैटी-वमेटी कुछ नहीं। भुवन बाबू ही सर्वे ही सर्वा हैं।
फिर भी औपचारिकता के लिए मैंने कमेटी का नाम लिया था।
भुवन बाबू बोले जो कुछ करना है मैं ही करूंगा। आप सभी को जानते भी तो नहीं।
-लेकिन बाद में हमें दोष मत दीजिएगा। मैंने कहा
भुवन बाबू बोले-नहीं, दोष आपके सिर नहीं मढ़ूगा। पर उसने अपने पति को छोड़ दिया ?
मैंने कहा अवश्य ही पति में कोई दोष रहा होगा।
-आपने पूछा था ?
-यह भी कोई पूछने की बात है !
पर भुवन बाबू को यह मालूम नहीं था कि मुझे कुछ पूछने की जरूरत नहीं थी। मैं सब कुछ जानता था। -डायरी नहीं लिखता था। इसलिए ठीक-ठीक समय या तारीख नहीं बता पाऊंगा- पर बाकी बातें मुझे याद ही थीं।
बोले-क्यों साहब, निर्वाचन का क्या हुआ ?
मैंने कहा-अभी तक कोई निर्णय नहीं ले पाया हूं।
भुवन बाबू बोले-इसमें इतना सोचने-विचारने का है ही क्या ? जिसे भी हो, नियुक्त-पत्र डाल दीजिए। चेहरा देखकर ही चरित्र का भी अनुमान लगा बैठेंगे, इसलिए तो मैंने यह काम आपको सौंपा था।
मैंने कहा-माफ कीजिएगा, भुवन बाबू। मैं हार गया हूं, मेरा अहंकार टूट चुका है।
-क्यों ? भुवन बाबू अवाक होकर मेरी ओर घूमते रहे। क्यों यह हारने की बात कहां से उठ गई ? अहंकार टूटने का क्या कारण हो सकता है, मैं समझा नहीं ?
मैंने कहा-है, भुवन बाबू ! कारण है। आप लोग समझते हैं, साहित्यिक होने से ही आदमी को पहचानना आसान हो जाता है, पर यह बात बिल्कुल गलत है। हम लोग सिर्फ बना-बनाकर कहानियां लिख सकते हैं। कोशिश करने पर आप भी लिख सकते हैं। मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है। एक थी। बी०ए० पास, बच्चा वगैरह भी नहीं है-पर पति को छोड़ आई है-ऐसी टीचर आप रखेंगे ? कहिए !
पति को छोड़ दिया है ? भुवन बाबू को मन में भी दुविधा हुई। इतने वर्षों से वह स्कूल चला रहे थे। बुजुर्ग आदमी थे। जीवन को उन्होंने देखा –पहचाना था। अनेक जगह घूम आए थे। लोगों से ठगे भी गए थे। लेकिन आदमी अनुभवी थे। पर उन्हें भी संकोच में पड़ा देखकर मैंने कहा-आप स्वयं भी सोचिए और अपनी कमेटी के मेंम्बरों से भी सलाह-मशविरा कर लीजिए।
मुझे मालूम है कि कमैटी-वमेटी कुछ नहीं। भुवन बाबू ही सर्वे ही सर्वा हैं।
फिर भी औपचारिकता के लिए मैंने कमेटी का नाम लिया था।
भुवन बाबू बोले जो कुछ करना है मैं ही करूंगा। आप सभी को जानते भी तो नहीं।
-लेकिन बाद में हमें दोष मत दीजिएगा। मैंने कहा
भुवन बाबू बोले-नहीं, दोष आपके सिर नहीं मढ़ूगा। पर उसने अपने पति को छोड़ दिया ?
मैंने कहा अवश्य ही पति में कोई दोष रहा होगा।
-आपने पूछा था ?
-यह भी कोई पूछने की बात है !
पर भुवन बाबू को यह मालूम नहीं था कि मुझे कुछ पूछने की जरूरत नहीं थी। मैं सब कुछ जानता था। -डायरी नहीं लिखता था। इसलिए ठीक-ठीक समय या तारीख नहीं बता पाऊंगा- पर बाकी बातें मुझे याद ही थीं।
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याद आता है, जाड़े की रात थी। सम्भवताः माघ का महीना था। अटल दा की शादी
हो रही थी। अटलबिहारी बासु। हममें से कौन उन्हें नहीं जानता था। बदमतल्ले
के लोग उनका ओर अंगुली दिखाकर कहते-देखो, देखो लड़का
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